मानव शरीर में स्थित वायु को प्राण कहा जाता है और ये प्राण एक शक्ति है
जिससे शरीर में चेतना का निर्माण होता है। अगर हम एक पल भी सांस लेना बंद
कर दें तो हमारा जीवन संकट में आ जाता है। जब हम सांस लेते है तो हमारे
अंदर जा रही हवा या वायु पांच भागो में बाँट जाती है या यूँ कहियें कि ये
वायु शरीर के भीतर पांच भागो में स्थिर हो जाती है।
व्यान :-
व्यान वो प्राणशक्ति मानी जाती है जो रक्त में मिलकर पूरे शरीर में व्याप्त होती है और शरीर के सभी अंगो तक पौषक तत्वों को पहुँचती है। रक्त में मिलने के कारण ये वायु पूरे शरीर में घूमती रहती है और इसी तरह ये सारे शरीर में व्यक्ति के जीवन के लिए जरूरी सभी तत्वों को पहुंचती रहती है। अगर व्यान वायु न हो तो शरीर किसी भी कार्य को नही कर सकता । जब ये वायु कुपित हो जाती है तो शरीर में अनेक तरह के रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। ये मुख्यतः मांस और चर्बी में कार्य करके ये इन्हें सेहतमंद रखती है। ये शरीर से मोटापे को कम करती है और शरीर को पुनः जवान बनती है।
व्यान वो प्राणशक्ति मानी जाती है जो रक्त में मिलकर पूरे शरीर में व्याप्त होती है और शरीर के सभी अंगो तक पौषक तत्वों को पहुँचती है। रक्त में मिलने के कारण ये वायु पूरे शरीर में घूमती रहती है और इसी तरह ये सारे शरीर में व्यक्ति के जीवन के लिए जरूरी सभी तत्वों को पहुंचती रहती है। अगर व्यान वायु न हो तो शरीर किसी भी कार्य को नही कर सकता । जब ये वायु कुपित हो जाती है तो शरीर में अनेक तरह के रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। ये मुख्यतः मांस और चर्बी में कार्य करके ये इन्हें सेहतमंद रखती है। ये शरीर से मोटापे को कम करती है और शरीर को पुनः जवान बनती है।
समान :-
ये वायु शरीर के नाभिक्षेत्र में स्थित पाचन क्रिया में स्थित प्राणशक्ति की तरह ही होती है और ये शरीर की हड्डियों का संतुलन बनाये रखती है। हड्डियों तक हवा को पहुँचाना बहुत ही मुश्किल होता है और इसीलिए ये वायु शरीर के लिए बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। इसके न होने से हड्डियाँ कमजोर हो जाती है। इसको अधिक मात्रा में पाने के लिए आप जितनी ताज़ी और शुद्ध हवा ग्रहण कर सको उतना अधिक अच्छा है। इस वायु से हड्डियों में लचीलापन भी बढ़ता है जिसकी वजह से जोड़ो के दर्द की शिकायत कम होती है।
अपान :-
इसका अर्थ नीचे वाली वायु से होता है जो शरीर के रस में होती है। यहाँ रस से अर्थ जल और बाकी के तरल पदार्थों से है। अपान वायु पक्वाशय में स्थित होती है और इसका कार्य मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को बाहर निकलना होता है। इस वायु के कुपित होने से व्यक्ति को मूत्राशय और गुर्दे से सम्बंधित रोग हो जाते है। अपान वो वायु है जो मलद्वार से बाहर निकलती है।
उदान :-
ये गले में स्थित वायु होती है। इसी वायु की वजह से व्यक्ति का स्वर निकलता है, जिससे व्यक्ति बोल पाता है। इसका अर्थ ऊपर की वायु से है जो स्नायुतंत्र में होती है और इसे संचालित भी करती है। साथ ही इस वायु को मस्तिष्क की क्रियाओं को संचालित करने वाली प्राणशक्ति भी माना जाता है। ये वायु व्यक्ति के विशुद्धि चक्र को भी जगती है।
प्राण :-
प्राण वायु तीन स्थानों से स्थित रहती है। पहला मुख, दूसरा खून और तीसरा फेफडे। ये प्राणों को धारण कर जीवन प्रदान करती है। अगर ये वायु न हो तो व्यक्ति न तो कुछ खा पायेगा और न ही पी पायेगा। साथ ही ये हमारे शरीर का हालचाल बताती है। अगर प्राण वायु दूषित हो जाती है तो व्यक्ति को श्वास सम्बंधित अंगो के विकार हो जाते है। क्योकि ये वायु खून और फेफड़ों में भी स्थित होती है तो इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। ये खून को भी साफ़ करती है और प्राणों के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इन सभी से मिलकर चेतना बनती है और मन संचालित होता है, जिससे शरीर का रक्षण और क्षरण होता है। अगर इनमे से किसी एक में भी दिक्कत आती है तो सभी प्रभावित होते है जिसके कारण मन, शरीर और चेतना में रोग और शोक आ जाता है। आगे हम बताएँगे की आयुर्वेदिक दवा कब और किस समय लेनी चाहिए। क्योंकि दवा का सम्बन्ध विकार से है। और विकार का सम्बन्ध वायु से है।
ये वायु शरीर के नाभिक्षेत्र में स्थित पाचन क्रिया में स्थित प्राणशक्ति की तरह ही होती है और ये शरीर की हड्डियों का संतुलन बनाये रखती है। हड्डियों तक हवा को पहुँचाना बहुत ही मुश्किल होता है और इसीलिए ये वायु शरीर के लिए बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। इसके न होने से हड्डियाँ कमजोर हो जाती है। इसको अधिक मात्रा में पाने के लिए आप जितनी ताज़ी और शुद्ध हवा ग्रहण कर सको उतना अधिक अच्छा है। इस वायु से हड्डियों में लचीलापन भी बढ़ता है जिसकी वजह से जोड़ो के दर्द की शिकायत कम होती है।
अपान :-
इसका अर्थ नीचे वाली वायु से होता है जो शरीर के रस में होती है। यहाँ रस से अर्थ जल और बाकी के तरल पदार्थों से है। अपान वायु पक्वाशय में स्थित होती है और इसका कार्य मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को बाहर निकलना होता है। इस वायु के कुपित होने से व्यक्ति को मूत्राशय और गुर्दे से सम्बंधित रोग हो जाते है। अपान वो वायु है जो मलद्वार से बाहर निकलती है।
उदान :-
ये गले में स्थित वायु होती है। इसी वायु की वजह से व्यक्ति का स्वर निकलता है, जिससे व्यक्ति बोल पाता है। इसका अर्थ ऊपर की वायु से है जो स्नायुतंत्र में होती है और इसे संचालित भी करती है। साथ ही इस वायु को मस्तिष्क की क्रियाओं को संचालित करने वाली प्राणशक्ति भी माना जाता है। ये वायु व्यक्ति के विशुद्धि चक्र को भी जगती है।
प्राण :-
प्राण वायु तीन स्थानों से स्थित रहती है। पहला मुख, दूसरा खून और तीसरा फेफडे। ये प्राणों को धारण कर जीवन प्रदान करती है। अगर ये वायु न हो तो व्यक्ति न तो कुछ खा पायेगा और न ही पी पायेगा। साथ ही ये हमारे शरीर का हालचाल बताती है। अगर प्राण वायु दूषित हो जाती है तो व्यक्ति को श्वास सम्बंधित अंगो के विकार हो जाते है। क्योकि ये वायु खून और फेफड़ों में भी स्थित होती है तो इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। ये खून को भी साफ़ करती है और प्राणों के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इन सभी से मिलकर चेतना बनती है और मन संचालित होता है, जिससे शरीर का रक्षण और क्षरण होता है। अगर इनमे से किसी एक में भी दिक्कत आती है तो सभी प्रभावित होते है जिसके कारण मन, शरीर और चेतना में रोग और शोक आ जाता है। आगे हम बताएँगे की आयुर्वेदिक दवा कब और किस समय लेनी चाहिए। क्योंकि दवा का सम्बन्ध विकार से है। और विकार का सम्बन्ध वायु से है।