12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन है। इस अवसर पर यहां जानिए
स्वामीजी के जीवन से जुड़े कुछ प्रचलित किस्से। इन किस्सों में जीवन
प्रबंधन के सूत्र भी छिपे हैं।
जब एक अमेरिकी महिला ने विवेकानंद के कपड़ों को कहा अजीब
स्वामी विवेकानंद शिकागो की विश्व धर्म संसद के लिए अमेरिका गए थे।
धर्म संसद में कुछ दिन शेष थे। जाहिर है धर्म संसद में न तो उनका ऐतिहासिक
उद्बोधन हुआ था और न ही उन्हें ख्याति मिली थी। अमेरिका पहुंचने के बाद भी
वे संन्यासियों की वेशभूषा में ही रहते थे। उनके सिर पर पगड़ी, हाथों में
डंडा और कंधों पर चादर डली हुई थी। एक दिन इसी वेशभूषा में वे शिकागो की
सड़कों पर घूम कर रहे थे।
अमेरिका के लोगों के लिए स्वामीजी के कपड़े न सिर्फ अचरज की वजह थे,
बल्कि काफी हद तक उनके लिए ये मजाक का विषय भी थे। स्वामीजी के पीछे-पीछे
एक अमेरिकी महिला चल रही थी। उस महिला ने अपने साथी से कहा कि जरा इन महाशय
को तो देखो, कैसी अजीब कपड़े पहन रखे हैं!
स्वामी विवेकानंद ने भी महिला की बात सुन ली और वे समझ गए कि अमेरिका
के लोग उनकी भारतीय वेशभूषा का मजाक बना रहे हैं। वे रुके और उस महिला से
बोले कि बहन! मेरे इन कपड़ों को देखकर आश्चर्य मत करो। तुम्हारे देश में
कपड़ों से व्यक्ति की परख होती है, लेकिन मैं जिस देश से आया हूं, वहां
व्यक्ति की परख कपड़ों से नहीं, बल्कि उसके चरित्र से होती है। कपड़े तो
ऊपरी दिखावा हैं। चरित्र ही व्यक्तित्व का आधार है।
स्वामीजी के सटीक जवाब को सुनकर उस महिला का सिर शर्म से झुक गया।
इसके बाद जब विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ तो स्वामीजी का अद्भुत संबोधन
सुनकर अमेरिकावासियों के मन में उनके प्रति गहरी श्रद्धा का भाव आ गया और
भारत के विषय में उनकी सोच बदल गई। इस तरह स्वामीजी ने भारतीय संस्कृति को
मान दिलाया। व्यक्ति के आचरण से उसकी सच्ची पहचान होती है।
स्वामीजी की नजरों में ऐसे हो गए सभी एक समान
एक बार स्वामी विवेकानंद खेतड़ी से जयपुर आए। खेतड़ी के राजा उन्हें
विदा करने के लिए जयपुर तक साथ आए थे। वहां शाम को मनोरंजन के लिए नृत्य और
गायन का आयोजन रखा गया था। इस कार्यक्रम के लिए एक प्रसिद्ध नर्तकी को
आमंत्रित किया गया था। जब स्वामीजी से इस आयोजन में उपस्थित होने का आग्रह
किया गया तो उन्होंने कहा कि नृत्य-गायन में संन्यासी का उपस्थित रहना उचित
नहीं है। जब नर्तकी को यह मालूम हुआ तो वह बहुत दुखी हो गई। नर्तकी को लगा
कि क्या वह इतनी घृणा की पात्र है कि कोई संन्यासी उसकी उपस्थिति में कुछ
देर बैठ भी नहीं सकते?
शाम को आयोजन शुरू हुआ। नर्तकी ने दर्द भरे स्वर में सूरदास का यह
भक्ति गीत गाया- 'प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो। समदरसी है नाम तिहारो,
चाहो तो पार करो...।'
जब स्वामीजी ने भजन के बोल सुने तो वे नर्तकी का दुख समझ गए। बाद में
उन्होंने नर्तकी से क्षमा मांगी। इस प्रसंग के बाद स्वामीजी की दृष्टि में
सभी एक समान हो गए।
जब एक पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक ने पूछा मैं कामयाब क्यों नहीं हूं
एक बार स्वामी विवेकानंद के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो बहुत दुखी लग
रहा था। उस व्यक्ति ने आते ही स्वामीजी के पैरों में गिर पड़ा और बोला कि
मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूं, मैं बहुत मेहनत करता हूं, लेकिन कभी भी
सफल नहीं हो पाता हूं। उसने विवेकानंद से पूछा कि भगवान ने मुझे ऐसा नसीब
क्यों दिया है? मैं पढ़ा-लिखा और मेहनती हूं, फिर भी कामयाब नहीं हूं।
स्वामीजी उसकी परेशानी समझ गए। उस समय स्वामीजी के पास एक पालतू
कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा कि तुम कुछ दूर तक मेरे कुत्ते को
सैर करा लाओ। इसके बाद तुम्हारे सवाल का जवाब देता हूं।
वह व्यक्ति आश्चर्यचकित हो गया, फिर भी कुत्ते को लेकर निकल पड़ा।
कुत्ते को सैर कराकर जब वह व्यक्ति वापस स्वामीजी के पास पहुंचा तो
स्वामीजी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता
बहुत थका हुआ लग रहा था।
स्वामीजी ने व्यक्ति से पूछा कि यह कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया, जबकि तुम तो बिना थके दिख रहे हो।
व्यक्ति ने जवाब दिया कि मैं तो सीधे-साधे अपने रास्ते पर चल रहा था, लेकिन कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है, लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मुझसे कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसलिए यह थक गया है।
स्वामीजी ने व्यक्ति से पूछा कि यह कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया, जबकि तुम तो बिना थके दिख रहे हो।
व्यक्ति ने जवाब दिया कि मैं तो सीधे-साधे अपने रास्ते पर चल रहा था, लेकिन कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है, लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मुझसे कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसलिए यह थक गया है।
स्वामीजी ने मुस्करा कर कहा कि यही तुम्हारे सभी प्रश्रों का जवाब है।
तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आसपास ही है। वह ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन तुम
मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से
दूर होते चले जाते हो।
यही बात सभी पर लागू होती है। अधिकांश लोग दूसरों की गलतियां देखते
रहते हैं, दूसरों की सफलता से जलते हैं। अपने थोड़े से ज्ञान को बढाने की
कोशिश नहीं करते हैं और अहंकार में दूसरों को कुछ भी समझते नहीं हैं।
इसी सोच से हम अपना बहुमूल्य समय और क्षमता दोनों खो बैठते हैं और
जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है। इस प्रसंग की सीख यही है कि दूसरों
से होड़ नहीं करना चाहिए और अपने लक्ष्य दूसरों को देखकर नहीं, बल्कि खुद
ही तय करना चाहिए।
हमारा ध्यान सिर्फ लक्ष्य पर होना चाहिए
एक बार स्वामी विवेकानंद अमेरिका में भ्रमण कर रहे थे। एक जगह से
गुजरते हुए उन्होंने पुल पर खड़े कुछ लड़कों को देखा, वे नदी में तैर रहे
अंडे के छिलकों पर बन्दूक से निशाना लगा रहे थे। किसी भी लड़के का एक भी
निशाना सही नहीं लग रहा था। तब उन्होंने ने एक लड़के से बन्दूक ली और खुद
निशाना लगाने लगे। उन्होंने पहला निशाना लगाया और वो बिलकुल सही लगा, फिर
एक के बाद एक उन्होंने कुल 12 निशाने लगाए। सभी बिलकुल सटीक लगे।
ये देखकर लड़के दंग रह गए और उनसे पुछा- ‘स्वामी जी, भला आप ये कैसे कर
लेते हैं? आपने सारे निशाने बिलकुल सटीक कैसे लगा लिए? स्वामी विवेकनन्द ने
उत्तर दिया- ‘असंभव कुछ नहीं है, तुम जो भी कर रहे हो अपना पूरा दिमाग उसी
एक काम में लगाओ। अगर तुम निशाना लगा रहे हो तो तम्हारा पूरा ध्यान सिर्फ
अपने लक्ष्य पर होना चाहिए। तब तुम कभी भी चूकोगे नहीं। यदि तुम अपना पाठ
पढ़ रहे हो तो सिर्फ पाठ के बारे में सोचो।
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