संस्कृत के
कई ग्रंथ और
रचनाएं ऐसी हैं,
जो हजारों साल
पहले लिखे गए,
लेकिन आज के
साइंस से कहीं
ज्यादा एडवांस्ड थी उनकी
कलम और उससे
भी कहीं एडवांस्ड
थी उनकी सोच।
जिस साउंड सिस्टम
पर आज हम
गर्व करते हैं,
ज्यॉमेट्री को पढ़ते
हैं, या एटम
और न्यूक्लियर थ्योरी
पर आज की
दुनिया गर्व कर
रही है, उसे
हजारों साल पहले
हमारे देश के
संस्कृत विद्वानों और ऋषि-मुनियों ने दुनिया
के सामने रख
दिया था। हज़ारों
साल पहले ऐसा
काव्य भी लिख
दिया गया, जो
सीधा पढ़ने पर
राम कथा कहता
है और उल्टा
पढ़ें तो कृष्ण
गाथा। एकाक्षरी श्लोक
भी लिखे गए,
जिनमें एक ही
अक्षर के कई
अलग अर्थ निकलते
हैं। राजा-महाराजा
वेश्याओं और उनकी
चालों से खुद
को कैसे बचाएं,
इसे भी लिख
कर ग्रंथ की
शक्ल दी गई।
आप भी जानिए
कि जिन बातों
को हम आज
साइंस की देन
मानते हैं, संस्कृत
उन्हें सदियों से समेटे
हुए है। इन
ग्रंथों और रचनाओं
की पुष्टि भोपाल
स्थित राष्ट्रीय संस्कृत
संस्थान (डीम्ड यूनिवर्सिटी) के
प्रिंसिपल डॉ विद्यानंद
झा और प्रोफेसर
डॉ.नीलाभ तिवारी
से भी बात
की। वे भी
इन कृतियों को
भारतीय समाज और
खासकर संस्कृत की
धरोहर मानते हैं।
इस तरह श्लोकों
और मंत्रों के
पीछे इन्हें लिखने
वाले कवि, ऋषि
की योग्यता ही
थी। उनके ये
श्लोक और मंत्र
आज भी भारत
और खासकर संस्कृत
भाषा के लिए
धरोहर हैं। किसी
और भाषा में
ऐसे उदाहरण कम
ही देखने मिलते
हैं, जिनमें एक
ही अक्षर का
प्रयोग हो और
सभी के अर्थ
अलग हों।
भारवी के बारे
में
भारवी का जन्म
कहां हुआ, ये
अभी तक स्पष्ट
नहीं है। उनके
जन्म का काल
भी कई मान्यताओं
और विशेषज्ञों के
हिसाब से अलग
अलग है। विद्वान
हारमेन जेकोबी ने उनका
जन्म 6वीं शताब्दी
के पहले होना
बताया, लेकिन कुछ ने
उनका काल (550-600) माना।
आचार्य बलदेव उपाध्याय, पंडित
सीताराम जयराम जोशी और
विश्वनाथ शास्त्री ने भी
भारवी का 6वीं
शताब्दी बताया। यही काल
ऐहोल के शिलालेख
से भी साबित
होता है।
के.रामनाथ शास्त्री और
रामकृष्ण कवि द्वारा
दक्षिण भारतीय ग्रंथमाला में
दंडी कवि द्वारा
लिखित अवंति सुंदरी
कथासार में लिखा
कि भारवी अचलपुर
के निवासी और
कौशिक गोत्र में
उत्पन्न नारायण शास्त्री के
बेटे थे।
महर्षि कणाद को वैशेषिक
दर्शन का प्रवर्तक
माना गया है
कणाद ने आधुनिक
दौर के अणु
विज्ञानी जॉन डाल्टन
के भी हजारों
साल पहले यह
रहस्य उजागर कर
दिया था कि
द्रव्य के परमाणु
होते हैं। उन्होंने
द्वयाणुक (दो अणु
वाले) तथा त्रयाणुक
की चर्चा भी
की। कणाद परमाणु
की अवधारणा के
जनक माने जाते
हैं। महर्षि कणाद
ने ही न्यूटन
से कहीं पहले
गति के तीन
नियम बता दिए
थे।
कणाद के सिद्धांतः
इस भौतिक जगत
की उत्पत्ति छोटे
से छोटे कण
परमाणुओं के संघनन
से होती है।
गति के नियम-
महर्षि कणाद ने
ही न्यूटन से
पूर्व गति के
तीन नियम बताए
थे।
वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते।
वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते नियतदिक
क्रियाप्रबन्धहेतु।
वेगः संयोगविशेषविरोधी॥
वैशेषिक दर्शन अर्थात् वेग
या मोशन (motion) पांचों
द्रव्यों पर निमित्त
व विशेष कर्म
के कारण उत्पन्न
होता है तथा
नियमित दिशा में
क्रिया होने के
कारण संयोग विशेष
से नष्ट होता
है या उत्पन्न
होता है।
ऐसे पड़ा नाम
कणाद खेत से
फसल कटने के
बाद बचे हुए
अन्न कणों को
इकट्ठा करते थे
और उन्हें खाकर
अपना जीवनयापन करते
थे, इसलिए उनका
नाम कणाद पड़
गया। उनका समय
छठी सदी ईसापूर्व
है, लेकिन कुछ
लोग उन्हें दूसरी
शताब्दी ईसापूर्व का मानते
हैं। ऐसा विश्वास
है कि वे
गुजरात के प्रभास
क्षेत्र (द्वारका के निकट)
में जन्मे थे।
ऋषि शूल्व का लिखा ‘शूल्वसूत्र’ गणना और माप का अनोखा
ग्रंथ है। दरअसल, हमारे वेदों में विभिन्न तरह के यज्ञों का उल्लेख है जैसे अश्वमेघ,
राजसूर्य आदि। इन यज्ञों को करने के लिए यज्ञवेदियां (यज्ञ कुंड) कैसे बनाई जाएं, उनका
माप क्या हो, कहां-किस दिशा में क्या हो, सब शूल्वसूत्र में है। इसके अलावा आज हम नापने
के लिए मीटर, सेंटीमीटर जैसे मानकों को इस्तेमाल करते हैं, लेकिन शूल्व ने तब ही बता
दिया था कि नाप क्या है, लंबाई-चौड़ाई, गहराई-मोटाई को नापने के सही तौर-तरीके क्या
हैं। इसे 2nd Century BC में लिखा जाना बताया जाता है, लेकिन इसको लेकर कोई स्पष्ट
तथ्य नहीं है और न ही इसकी (समय की) पुष्टि होती है।
काव्य की आत्मा
‘ध्वनि’
है उसका अपना
सिद्धांत है, दर्शन
है' धवन्यालोक इसी
ध्वनि के दर्शन
(फिलॉसफी) के लिए
काफी फेमस है।
आनंद वर्धन का
लिखा यह ग्रंथ
आज भी संस्कृत
PG के सिलेबस में
है और उनके
लिए खास है
जो संस्कृत साहित्य
पढ़ते हैं।
9वीं शताब्दी (855-883 ईसवी) में लिखे
गए इस ग्रंथ
में बताया गया
है कि कैसे
हमारे मुंह से
निकली हर ध्वनि
ब्रह्मांड में बनी
रहती है?, कैसे
हम जो बोलते
हैं वह हम
तक किसी न
किसी रूप में
वापस आता है
और वो असल
ध्वनि क्या है,
जो काव्य बनाती
है। धवन्यालोक में
ध्वनि (साउंड) की खासियतें,
उसके उच्चारण के
सही तरीके और
पूरा व्याकरण (ग्रामर)
है। आज जो
साउंड टेक्नोलॉजी हम
देख-सुन रहे
हैं, उसका पूरी
थ्योरी आनंद वर्धन
ने उस समय
ही दे दी
थी।
17वीं शताब्दी में कांचीपुरम के कवि वेंकटाध्वरि द्वारा रचित
‘राघवयादवीयम्’
एक अद्भुत ग्रंथ है। इसे ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। इसमें केवल 30श्लोक हैं। इन
श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएं, तो रामकथा बनती है और उल्टा पढ़ें, तो कृष्णकथा।
इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक (विलोम श्लोक) जोड़
लिए जाएं, तो बनते हैं 60 श्लोक।
भोपाल स्थित राष्ट्रीय
संस्कृत संस्थानम के प्रिंसिपल डॉ विद्यानंद झा इसे अद्भुत ग्रंथ मानते हैं। वे कहते
हैं- ‘यह ग्रंथ बताता है कि कवि कितना ज्ञानी था, जिसने ऐसी रचना की जो राम और कृष्ण,
दोनों के भक्तों के लिए खास है।’ वे कहते हैं, ‘संस्कृत में लिखे गए इतने अद्भुत
ग्रंथ को सहेजना चाहिए, लोगों तक पहुंचाना चाहिए न कि धर्म पर हो रही बेवजह बहस में
पड़ना चाहिए।’
राघवयादवीयम् के बारे में
जैसा कि नाम से जाहिर
होता है राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित्र को बताने वाली यह गाथा है राघवयादवीयम्।
पहला श्लोक हैः
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं
रन्तारं कालं भासा यः।
रामो रामाधीराप्यागो
लीलामारायोध्ये वासे ॥ 1॥
अर्थातः मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जो जिनके ह्रदय
में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्रि की पहाड़ियों से
होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापस लौटे।
अब इसका विलोम यानी
उल्टा श्लोक देखिए-
सेवाध्येयो रामालाली
गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं
तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ 1॥
अर्थातः मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में
प्रणाम करता हूं जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ विराजमान हैं तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों
की शोभा हर लेती है।
पुराने ज़माने में राजा-महाराजा वेश्यालय चलाने
की अनुमति देते
थे। इन्हें चलाने
के लिए एक
बुजुर्ग महिला (मुखिया) नियुक्त
की जाती थी,
जिसे कुट्टनी कहते
थे। उस वक्त
इन वेश्याघरों में
कई दूसरे राजा,
अन्य देशों के
सेनापति, दरबार के लोग,
राजदूत, मुखबिर और शत्रु
सेना के लोग
भी आते थे।
वेश्याएं इनसे राज
उगलवाकर उस देश
के राजा तक
पहुंचाती थीं। कुट्टनी
कम उम्र की
दूसरी वेश्वाओं को
सेक्स के दौरान
राज निकालने के
तौर-तरीके और
कुछ खास आसन
सिखाती थी, जिसके
इस्तेमाल से कभी-कभी दुश्मन
की जान भी
ले सकती थी।
इनसे बचने के
लिए क्या किया
जाए, कैसे बचा
जाए, ये 'कुट्टनीमतम्'
में बताया गया
है। आज जो
कामसूत्र हम जानते-समझते हैं, उसके
कई आसन कुट्टनीमतम्
में भी मौजूद
हैं।
राष्ट्रीय संस्कृत संस्थानम्, भोपाल
के प्रोफेसर डॉ.
नीलाभ तिवारी के
मुताबिक, इस ग्रंथ
को 8वीं शताब्दी
के राजा जयापीढ़
के प्रधानमंत्री दामोदर
गुप्त ने लिखा
था। गुप्तचरों से
कैसे बचा जाए,
स्वास्थ्य और आर्थिक
सुरक्षा के तरीके
भी इस ग्रंथ
में है।
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